मई दिवस 2020: एक नई दुनिया के आगाज़ का समय है

135 सालों में या यूँ कहें कि बीती शताब्दी से अब तक यह पहला मौका होगा जब मई दिवस पर दुनिया भर के मेहनतकश लोग सड़कों पर नहीं होंगे. कई लोगों ने कोरोना वायरस के इस संकट की तुलना जंगों से की है, कुछ इसकी उपमा बीते दोनों विश्व युद्धों से भी कर रहे हैं. परन्तु यह लड़ाई इंसानों के बीच वर्चस्व की लड़ाई नहीं है, ना ही यह लड़ाई सत्ता या ज़मीन की है. यह संकट 1929 या 2008 के संकट जैसा भी नहीं है जो अर्थव्यवस्था के पूर्णतया ढह जाने की वजह से उत्पन्न हुआ. यह महामारी जिसे हम झेल रहे हैं वह आर्थिक संकट की कारक नहीं वरन आर्थिक संकट के कारण उत्पन्न हुई है. यह एक अभूपूर्व स्थिति है, एक ऐसा संकट जिसकी जडें मानव समाज और प्रकृति के विरोधाभास में निहित हैं.

यह महामारी भी अमीर और गरीब को एक समान प्रभावित नहीं करती

हर चीज़ की तरह ही महामारी का असर भी अमीर और गरीब पर एक समान नहीं है. यह मजदूर वर्ग को और लोगों से कहीं ज्यादा प्रभावित करती है. इस तालाबंदी की सबसे ज्यादा मार दिहाड़ी मजदूर, स्वरोज़गार करने वाले, घर से काम करने वाले और प्रवासी मजदूरों पर पड़ी है, यह मेहनतकश वर्ग का वो तबका है जो हाशिये पर जीने को मजबूर है. इस बात पर कोई दो राय नहीं हो सकती की एक संक्रामक बीमारी जिसका अब तक कोई इलाज नहीं मिल पाया है उससे बचने के लिए जनकटाव की आवश्यकता है लेकिन भारत में जिस प्रकार और जिस स्तर पर तालाबंदी की गयी है उसे देख कर लगता है मानो मजदूर वर्ग के खिलाफ जंग छेड़ दी गयी है और इसका मजदूरों पर गहरा प्रतिकूल प्रभाव पडा है इससे भी कोई इनकार नहीं किया जा सकता है.

केंद्र सरकार द्वारा यह तालाबंदी बिना किसी परामर्श या सोची समझी रणनीति के लागू की गयी. भारत में संक्रमण का पहला मामला 30 जनवरी 2020 को प्रकाश में आया और तब ही से राज्य सरकारों ने अपने स्तर पर बचाव कार्य शुरू कर दिया परन्तु केंद्र सरकार ने ‘जनता कर्फ्यू’ लागू करने के लिए 22 मार्च 2020 तक का इंतज़ार किया. 24 मार्च 2020 से पूर्ण तालाबंदी लागू करने का एकतरफ़ा और मनमाना ऐलान सभी परिवहन सेवाओं को बंद करने के साथ आया. इसकी वजह से हज़ारों लाखों मजदूरों में खलबली मच गयी जो किसी भी तरह अपने घर लौटना चाह रहे थे. कई लोगों ने 1000 किलोमीटर या उससे भी लम्बा सफ़र अपने परिवारों के साथ पैदल चल कर तय किया तिस पर भी कुछ मामलों में उन्हें या तो पुलिसिया झेलना पड़ा और उन्हें उनके दड़बे जैसे घरों में वापिस लौटाया गया या किसी बदहाल जनकटाव केंद्र में रहने पर मजबूर किया गया. केंद्र सरकार ने लोगों के स्वछन्द आवागमन पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया है.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘सामाजिक कटाव’ के फायदे गिनाते रहे जबकि सच्चाई यह है कि हमारे मुल्क का एक बड़ा तबका बेहद छोटे घरों में रहने को मजबूर है जहाँ न रौशनी या हवा आने को खिड़कियाँ हैं, न तो शौचालय हैं, न पानी आता है और ना ही साफ़-सफाई की कोई व्यवस्था है. घर से काम करने को बढ़ावा देना या स्कूल व कॉलेज ऑनलाइन चला कर ‘ई-शिक्षा’ का ढिंढोरा पीटने से यह सत्य बदल नहीं जायेगा कि हमारे देश के मजदूर वर्ग का एक बड़ा तबका इन सुविधाओं तक पहुँच पाने का न तो सामर्थ्य रखता है न कौशल.

यह जानते हुए की इस स्तर पर लागू की गयी तालाबंदी न सिर्फ हमारी अर्थव्यवस्था को पतन की ओर धकेल देगी बल्कि उन सभी परिवारों को दुबारा गरीबी रेखा से नीचे फेंक देगी जिन्हें इससे उबरने में दशकों लग गए थे. केंद्र सरकार ने इसका सामना करने के लिए रहत कार्य के नाम पर अब तक केवल पुरानी योजनाओं पर नया वरक लगाने का काम किया है जैसे कि राष्ट्रीय खाद्यान योजना के तहत लोगों तक सीमित राशन पहुँचाना या मनरेगा के तहत सीमित रोज़गार सुनिचित करना. हालाँकि सरकार ने मालिकों को निर्देश दिए हैं कि तालाबंदी के दौर में मजदूरों को काम से न निकाला जाए और उन्हें पूरी मजदूरी दी जाए पर इस निर्देश को लागू करने या इसकी अवमानना करने वालों पर कोई दंडात्मक कार्यवाही करने का सरकार के पास न तो कोई तंत्र है न ही इसमें सरकार की कोई रूचि है. परिणामस्वरूप देश भर में मजदूरों की एक बड़ी आबादी ऐसी है जो अपनी मजदूरी से वंचित है. साथ ही सरकार इस बात पर अपनी पीठ ठोंक रही है की उसने मजदूरों को भविष्य निधि में जमा उन्ही के पैसे निकालने या भवन एवं सन्निर्माण कल्याण निधि एवं अन्य कल्याण निधि से आर्थिक मदद प्रदान करने की घोषणा की है. यह पैसा मजदूरों की मेहनत की कमाई का पैसा है जो मजदूरों ने अपने अच्छे-बुरे वक़्त के लिए सरकार की हिफाज़त में रख छोड़ा है.

महामारी की महात्रासदी

इन सबके बीच सबसे चिंतनीय विषय यह है कि केंद्र सरकार के पास महामारी से लड़ने के लिए कोई भी चिकित्सीय रणनीति नहीं है. दुनिया भर के चिकित्सकों ने इस बीमारी की रोकथाम के लिए वृहद् पैमाने पर जांच करने की सलाह दी है लेकिन हमारी सरकार यह सुनिश्चित कर पाने में पूरी तरह से विफल रही है. तालाबंदी के 6 हफ्ते बीत जाने के बाद भी हम एक ऐसी स्थिति में हैं जहाँ हमारी चरमराती हुई स्वास्थ्य व्यवस्था नंगी हो गयी है, हम न तो खुद जांच कर पा रहे हैं और एक निजी कंपनी द्वारा विदेश से जांच किट आयत कर पाने में भी विफल रहे हैं. इन तीन महीनों के दौरान स्वास्थ्य कर्मियों के लिए व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों (पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट PPE) किट का अभाव ही रहा है और इस लड़ाई में अगुआई कर रहे हमारे ठेका सफाई कर्मचारियों और मानदेय मजदूर जैसे की आशा, आंगनवाडी और ए.एन.एम कर्मचारी जो रोजाना संक्रमित लोगों के संपर्क में आते हैं उन्हें तो यह कभी उपलब्ध ही नहीं कराये गए. सरकार ने घोषणा की है की इन अगुआ मजदूरों को 50 लाख का स्वास्थ्य बीमा दिया जायेगा पर जीते जी इन्हें कोई भी सुरक्षा मुहैया नहीं करवाई गयी है. स्थिति को बद से बदतर बनाने का आलम यह है कि वे मजदूर जो सामग्री पहुंचाने आदि का काम कर रहे हैं (डिलीवरी वर्कर) के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया है कि वे आरोग्य सेतु सॉफ्टवेर अपने फ़ोन पर चलायें जिसके माध्यम से उन पर 24 घंटे निगरानी की जा रही है.

जबकि राज्य सरकारें आवंटन की भीख मांग रही हैं केंद्र सरकार ने अब तक वस्तु एवं सेवा कर का उनका बकाया भी चुकता नहीं किया है. ऐसी स्थिति में भी केंद्र सरकार अपनी नव-उदारवादी विचारधारा का ही पालन कर रही है और प्रतिबद्ध है की अपना खर्च नहीं बढ़ाएगी. इसीलिए उसने अविलम्ब यह घोषणा की है कि ऊपर के अधिकारियों से ले कर नीचले तबके के कर्मचारियों और यहाँ तक की शारीरिक श्रम करने वाले मजदूरों को भी महंगाई भत्ता नहीं दिया जायेगा. यह राज्य सरकार के मुलाज़िमों पर भी लागू होगा यानी की सभी सरकारी उद्यमों के कर्मचारियों पर भी लागू होगा. इसका परिणाम यह होगा की लोगों की व्यय क्षमता कम होगी जिसके परिणामस्वरूप बाज़ार में मांग कम होगी अतः खपत कम होगी और इस तरह एक चरमरा रही अर्थव्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो जाएगी. हालांकि केंद्र सरकार ने इस बाबत कोई अध्यादेश जारी नहीं किया है पर यह निजी क्षेत्र को साफ़ इशारा है कि वे मनमाने ढंग से अपने मजदूरों की मजदूरी पर वार करें. महामारी के इस दौर में यह और भी साफ़ हो गया है कि सरकार किसकी पक्षधर है, भारतीय रिज़र्व बैंक ने निजी निवेश निधियों (म्यूच्यूअल फण्ड) को 50,000 करोड़ रुपये का दान दिया है जबकि पिछले हफ्ते ही उनमें से एक का दिवाला पिट गया था. यह हमारी जिम्मेदारी बन गया है कि हम ना सिर्फ उस असमानता के खिलाफ लादें जो यह पूँजी बनाती है बल्कि उन ताक़तों के खिलाफ भी जंग तेज़ करें जो इनकी मददगार हैं.

इसके साथ ही केंद्र सरकार ने साफ़ कर दिया है की वह श्रम कानूनों में संशोधन कर के ही दम लेगी फिर चाहे इसके लिए उसे अध्यादेशों का ही सहारा लेना पड़े. 135 साल पहले मजदूरों ने हड़ताल कर अमरीकी शहर शिकागो के हेय मार्किट स्क्वायर पर एक शान्तिपूर्ण मार्च निकाला था और 8 घंटे के कार्यदिवस की मांग की थी आगे जो हुआ वो मजदूर वर्ग के गौरवशाली इतिहास में दर्ज है. दुनिया भर में 1 मई को माय दिवस मनाया जाता है. गुजरात, एक ऐसा राज्य है जो मई दिवस ही के दिन अपना स्थापना दिवस भी मनाता है. इस साल गुजरात ने मजदूरों के ‘नए भारत’ की एक झलक दिखलाई है. गुजरात सरकार ने अध्यादेश जारी कर सभी फैक्टरियों में कार्यदिवस को 8 घंटे से बढ़ा कर 12 घंटे कर दिया है. इसमें ओवरटाइम भत्ते का भी कोई प्रावधान नहीं है ना ही इस बात का कोई उल्लेख है कि यह अध्यादेश कब तक लागू रहेगा. सरकार ने यह साफ़ कर दिया है की महामारी में होने वाले आर्थिक नुक्सान का भार वह किसके कन्धों पर लादने वाली है.

बीते सालों में सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था की जिस तरह उपेक्षा की गयी और ख़ास कर इस सरकार के द्वारा जिस तरह निजी स्वास्थ्य सेवाओं और निजी स्वास्थ्य बीमा को बढ़ावा दिया गया उससे सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का पतन हुआ और अब आलम यह है कि सरकार ने कोरोना वायरस से लड़ने के लिए सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का रुख किया है. इससे तह साफ़ तौर पर दिखने लगा है की किस तरह निजी पूँजी को फायदा पहुचाने के लिए नियम-कानूनों को तोडा-मरोड़ा जाता है. जन सुविधाओं की सुरक्षा, उनमें बढ़ोतरी और उनका विकास उत्पादन के साधन और वितरण पर जनता का अधिकार स्थापित करने की हमारी इस जंग के अभिन्न अंग हैं.

महामारी के दौर में नफरत की आग

हम सब की तरह ही सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) यह जानती है की महामारी के बाद की दुनिया एक अलग दुनिया होने वाली है और इसीलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (संघ) के साथ मिल कर सुनिचित करने में लगी है की वह भी प्रासंगिक रहे. भाजपा-संघ ‘परिवार’ ने वायरस फैलाने का ठीकरा मुसलामानों के सर फोड़ने में बहुत मेहनत की है. मुस्लिम समुदाय के लोगों, ख़ास कर युवाओं को बड़ी तादात में दिल्ली में फरवरी-मार्च में घटित जनसंहार के लिए निशाने पर लिया जा रहा है. छात्रों और नागरिकता संशोधन विधयेक विरोधी कार्यकर्ताओं के साथ ही साथ दलित एवं मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी गिरफ्तार किया जा रहा है. गौतम नवलखा और आनंद तेलतुम्बडे को भी भीमा कोरेगांव मामले में तथाकथित रूप से संलिप्त होने के लिए यू.ए.पी.ए  के तहत गिरफ्तार किया गया है. कश्मीर में चल रही पूर्ण बंदी के बावजूद कई कश्मीरी पत्रकारों को भी इसी कानून के तहत गिरफ्तार किया गया है जिसे कुछ महीनों पहले ही संशोधित किया गया था ताकि व्यक्तियों को भी इसमें शामिल किया जा सके.

देश भर में उन पत्रकारों पर झूठ फ़ैलाने का आरोप लगाया जा रहा है जो इस नाकाम और संवेदनहीन सरकार की सच्चाइयों को उजागर कर मजदूरों के बुरे हालात बयान कर रहे हैं. अन्य सभी सरकारी महकमे सरकार ने अपने मातहत कर लिए हैं और सर्वोच्च न्यायलय ने भी अपने को केंद्र सरकार के सामने दंडवत कर लोगों के अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकारों को ताक पर रख दिया है. सर्वोच्च न्यायलय केंद्र सरकार की संघ-व्यवस्था की हत्या और केन्द्रीकरण की योजना में साथ दे रही है. ऐसे दौर में लोकतंत्र का बचाव हमारा प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए, लोकतंत्र के बिना न तो मजदूर वर्ग का आन्दोलन होगा, न ट्रेड यूनियन अधिकार होंगे और इन सब से ऊपर न तो समानता होगी, न निष्पक्षता और ना ही न्याय.

पाकिस्तान को दरकिनार करने के लिए भारतीय सरकार ने सार्क (SAARC) को पुनर्जीवित करने के लिए अपने पड़ोसियों पर आर्थिक मदद के नाम पर पैसे फेंकने का उपक्रम किया. इसी बीच प्रधानमंत्री ने अमरीकी राष्ट्रपति की गीदड़ भबकी से डर कर जहाँ अमरीका की गुलामी करते हुए हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन भेजा ताकि चीन द्वारा भेजी जा रही दोयम दर्जे की चिकित्सीय सामग्री का हवाला दे कर उसे दरकिनार किया जा सके और विदेशी निवेश लुभाया जा सके. यह बिलकुल वैसी ही विदेश नीति है जिससे हमें पिछले 6 सालों में कोई लाभ नहीं मिल सका है. परस्पर सम्मान और भरोसा ही वे नींव हैं जिन पर वह अन्तराष्ट्रीय सद्भाव बनाया जा सकता है जिसके केंद्र में मजदूर वर्ग के आन्दोलन का विकास और हमारे सामने मुह बाए उस नई दुनिया की समझ हो जिस पर हमारा काम, हमारी मजदूरी और हमारे सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक आज़ादी निर्भर करती है.

क्या हम यथावत बने रह सकते हैं?

क्या हम उसी दुनिया में वापिस जाना चाहते हैं जहाँ मजदूरों को एक सम्मानजनक मजदूरी मय्यसर नहीं है, उन्हें स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिलती, एक सुरक्षित और सम्मानित कार्यस्थल नहीं मिलता और बूढ़े या सेवा निवृत्त होने पर एक सम्मानजनक ज़िन्दगी नहीं मिलती? क्या हम उसी स्थिति में वापिस जाना चाहते हैं जहाँ निजी स्वास्थ्य सेवाएं और निजी स्वास्थ्य बीमा का वर्चस्व हो जिस तक हम में से 95% लोगों की पहुँच न हो? क्या हम उस शहरी व्यवस्था में वापिस जाना चाहते हैं जहाँ प्रदुषण ही प्रदुषण हो, निजी वाहनों की रेलमपेल हो और जन परिवहन सुविधाएं घटती ही चली जा रही हों? क्या हम मुनाफे के बंटवारे के बजाय मजदूरों की मजदूरी में ही बंटवारा करते चले जायें? और क्या हम धर्मान्धता और नफरत की आग को हमें विभाजित करने देते जायें या फिर

एक नई दुनिया बनाने के लिए संघर्ष करें, एक दुनिया जहाँ हर मजदूर के काम के लिए सम्मान हो, जहाँ सभी के लिए एक सम्मानित वेतन और जीवन सुनिचित हो और सभी के लिए न्याय, समता और लोकतंत्र हो. एक नई दुनिया बनाने के हमें अपने कल और अपने भविष्य को एक अलग नज़रिए से देखने की जरूरत है, इसमें हमारे अपने संगठनों के इतिहास और भविष्य में उनका स्थान क्या हो इस बात का अवलोकन करने की आवश्यकता है. इसके लिए जरूरी है कि सभी जनवादी, संघर्षशील मजदूर वर्ग संगठन एकजुट हों. एक ऐसे एकता कायम की जाए जो सिर्फ मुद्दों और मंचों और हडतालों तक सीमित न हो. यह वक़्त की मांग है कि हम सब एकजुट हो मजदूर वर्ग की एक इकाई की तरह सामाजिक और राजनितिक बदलाव के लिए साथ मार्च करें और एक नई, बेहतर दुनिया की रचना में खुद को निहित करें – यही इस मई दिवस पर हमारा संकल्प होना चाहिए.

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