हम मज़दूर हैं – हमारे अधिकार बिकाऊ नहीं

22 मई मेहनतकश वर्ग के संघर्ष को धार देने का दिन है

कोरोना वायरस के नाम पर देश भर में लगाई गयी बंदी को दो महीने से ज्यादा हो चले हैं. इन कठोर दो महीनों की बर्बरता और उससे उत्पन्न हुई परेशानी का सबब हम सबके सामने है.

फिर भी भारत के पूंजीपति वर्ग ने निर्णय लिया है कि ऐसे वक़्त में भी वे अपना बोझा आप ढ़ोने के काबिल नहीं हैं सो उन्होंने अपनी सत्तासीन पार्टी – भारतीय जनता पार्टी से मांग की है कि उनकी नाकामी का बोझा मेहनतकश वर्ग पर लाद दिया जाए. एक ऐसे दौर में जब हजारहा मज़दूर सैंकड़ों मील की लम्बी दूरी पैदल तय कर घर पहुँच रहे हैं तब देश के प्रधानमंत्री का लोगों से आत्मनिर्भर बनने का आह्वान एक क्रूर मज़ाक ही है.

पूंजीपतियों द्वारा खड़ी की गई पूंजीपतियों की गुलाम सरकार

अपने आकाओं के इशारे पर भाजपा की केंद्र सरकार राज्य सरकारों को कह रही है कि वे अपने क़ानूनों में बदलाव करें ताकि उद्योगों का बोझ कम हो सके. आदेशों पर फ़ौरन अमल बजाते हुए गुजरात, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सरकारों ने ऐसा कर भी दिया है.

गुजरात सरकार ने नए निवेशकों को न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम और कर्मकार प्रतिकर अधिनियम छोड़ बाकी सभी श्रम क़ानूनों से 1200 दिनों के लिए छूट दे दी है. मध्य प्रदेश सरकार ने उन सभी उद्यमों में जहाँ 300 से कम मज़दूर काम करते हों श्रम क़ानूनों से पूरी ही छूट दे दी है.  उत्तर प्रदेश सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर कर्मचारी प्रतिकर अधिनियम, भवन एवं अन्य सन्निर्माण मज़दूर अधिनियम, मज़दूरी संदाय अधिनियम की धारा 5 (मज़दूरी भुगतान की समयावधि), प्रसूति प्रसुविधा अधिनियम और बाल श्रम अधिनियम के अलावा बाकी सभी क़ानूनों से मालिकों को 3 साल के लिए पूरी छूट दे दी है.

असम, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, कर्णाटक और त्रिपुरा की तरह ही इन तीनों राज्यों ने भी कार्यदिवस के घंटे 8 से बढ़ा कर 12 कर दिए हैं , बिहार भी अपना नाम इस सूची में जोड़ने को बेताब है. महाराष्ट्र, पंजाब और राजस्थान ने भी काम के घंटे 8 से बढ़ा कर 12 किये हैं मगर दो शर्तों के साथ – पहला कि अतिरिक्त 4 घंटे ओवरटाइम की तर्ज़ पर देखे जायेंगे जिसमें मज़दूरी दोगुनी देनी होगी और दूसरा यह कि अध्यादेश बस 3 महीने के लिए मान्य होगा. काम के घंटों में बढ़ोतरी 8 घंटे के कार्यदिवस के लिए चलाए गए 150 साल पुराने संघर्ष पर पानी फेर देगा जिसने अन्तराष्ट्रीय श्रम संगठन के पहले कन्वेंशन की नींव रखी थी और जिसका अनुपालक भारत भी है.

भाजपा ने 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही श्रम क़ानूनों में ‘सुधार’ की डफली बजानी शुरू कर दी थी जिसमें भाजपा शासित राज्य सरकारें अगुआई कर रही थीं, अब 2019 के बाद से 4 लेबर कोड्स लाने की कवायद ने जोर पकड़ा है. इनमें से तीन – सामजिक सुरक्षा संहिता, औद्योगिक सम्बन्ध संहिता एवं व्यवसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्यदशा संहिता का अभी संसद में पारित होना बाकी है. 2019 में पारित हुई मज़दूरी संहिता ने मानक मज़दूरी का प्रस्ताव रखा है, यह मानक मज़दूरी न्यूनतम मज़दूरी से भी कम तय की जा सकती है यानि इसके बाद न्यूनतम मज़दूरी का अस्तित्व ही निरर्थक हो जाता है. अन्य तीनों संहिताएं संगठन बनाने के अधिकार और सामूहिक समझौता कर सकने के अधिकार के साथ-साथ अन्य सभी श्रमिक अधिकारों पर वार करने की दिशा में प्रेरित हैं. पूंजीपतियों और सरकार दोनों को ही लगता है कि सुगमता से ऐसा कर पाने की क्षमता राज्य सरकारों में ही है इसीलिए उन्होंने राज्य सरकारों का रुख किया है.

लॉकडाउन : मज़दूर संगठनों का सफ़ाया करने की साज़िश

पूँजीपति क्या चाहते हैं, क्या करना चाहते हैं यह भाजपा बखूबी समझती है. लॉकडाउन के चौथे चरण की घोषणा के साथ ही केंद्र सरकार ने 29 मार्च 2020 को जारी किया हुआ अपना वह आदेश वापिस ले लिया जो मालिकों को लॉकडाउन की अवधि के लिए मज़दूरी देने और इस दौरान मज़दूरों को काम से न निकालने पर बाध्य करता था यानी 18 मई 2020 से मालिकों पर कोई बाध्यता नहीं है. ऐसा इसलिए किया गया है क्योंकि मालिकों द्वारा इस आदेश के खिलाफ एक याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दायर की गयी थी जो अभी भी लंबित है. सरकार ने न्यायालय में अपने बचाव में अभी तक कोई असरदार पक्ष नहीं रखा है और न्यायपालिका भी मुंह चुरा रही है.

सच्चाई यह है कि मुट्ठी भर मालिकों को छोड़ दें तो न तो किसी मालिक ने और न ही केंद्र सरकार या राज्य सरकार ने फिर चाहे वह किसी भी पार्टी की क्यों न हो इस बाबत कोई ध्यान दिया की 29 मार्च के आदेश का पालन हो  – मज़दूरों को उनका मेहनताना मिले और उनकी नौकरी न जाए.  मेहनतकश वर्ग का संकट प्रवासी मज़दूरों की कठिनाइयों में सबसे मुखर रूप से उभरा है जिसका मुख्य कारण है एक अवैज्ञानिक और मनमाने लॉकडाउन का थोपा जाना जिसके लिए थाली पीटने वालों में सबसे आगे था निर्दयी, लोभी और परजीवी पूंजीपति वर्ग जो न सिर्फ मार्च महीने का वेतन नहीं देना चाहता था बल्कि शायद जिसने उससे पहले के महीनों की मज़दूरी का भी भुगतान नहीं किया था. यदि एक ओर सरकार ने लोगों की स्वछन्द आवाजाही पर रोक लगाई तो दूसरी तरफ पूंजीपति वर्ग ने देश को भुखमरी की तरफ जाने को मजबूर किया.

क़र्ज़ बढ़ाने वाला वित्तीय पैकेज

भाजपा की समझ में आ गया है कि 2014 से सत्ता में आने के बाद से आर्थिक संकट गहरा होता चला गया है और अब लॉकडाउन के बाद तो स्थिति को काबू कर पाना असंभव है. घरेलु धनी वर्ग ने न तो पिछले 6 सालों में निवेश किया है न तो भविष्य में करने वाला है. ऐसे में यदि विदेशी निवेशकों को रिझाना है तो इसके लिए जरूरी है कि समझदारी से राजकोषीय निर्णय लिए जायें जिसमें ऋण दरकरण बचाए रखने के लिए दी जाने वाली वित्तीय छूट के लिए कोई जगह न हो. पाँच खेप में जारी किये अपने वित्तीय पैकेज में भाजपा सरकार ने पूरे के पूरे सार्वजनिक क्षेत्र को बेच डालने का ऐलान कर दिया है, मुख्य उद्योगों में विनिवेश करने के साथ ही सार्वजनिक बैंकों द्वारा बिना किसी गिरवी/जमानती के बड़े ऋण देने की भी घोषणा हुई है. इस सब के फलित होने और इसका असर दीखने में अभी एक लम्बा वक़्त लगेगा. भाजपा जानती थी कि पूँजी को लुभाने के लिए जरूरी है की बढ़-चढ़ कर खैरात लुटाई जाए. उत्पादन की जिस एक कारक पर उसकी पकड़ है वह है श्रम. इसीलिए श्रम क़ानूनों से पूरी तरह से छूट भाजपा के इस पैकेज का एक बड़ा हिस्सा है. जब भाजपा शासित कर्णाटक राज्य ने केंद्र सरकार से प्रवासी श्रमिक को उनके राज्य वापिस ले जाने वाली रेलगाड़ियों पर रोक लगाने की मांग की तो सन्देश साफ़ था कि भाजपा सरकार के लिए मज़दूर उत्पादन के कारक मात्र हैं और उन्हें पूंजीपतियों की जूती की नोक पर रखा जाना चाहिए.

हम लॉकडाउन के चौथे चरण में प्रवेश कर चुके हैं और अभी भी – ‘जांच, निशान, कटाव और इलाज’ सुनिश्चित कर पाने से कोसों दूर हैं. स्वास्थ्य सुविधाओं में इजाफा बिलकुल भी नहीं हुआ है. हमारे स्वास्थ्य सेवाओं का 80% हिस्सा निजी क्षेत्र के मातहत है, उन्होंने तो अपनी दुकानें ही बंद कर ली हैं. सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र की हालत पहले ही सरकारी उपेक्षा के कारण चरमरायी हुई है यहाँ न साधन है न संसाधन. ऐसे में बीमार लोगों की देख-रेख का पूरा जिम्मा सार्वजनिक क्षेत्र के उन स्वास्थ्य कर्मियों के सर आ पड़ा है जिनकी मज़दूरी कौड़ियों में और काम के घंटे सदियों में नापे जाते रहे हैं. हमारे शहरों को साफ़ रखने और हमें इस कीटाणु के प्रकोप से बचाने का जिम्मा हमारे लाखों सफाई कर्मचारी साथियों ने उठा रखा है.  आशा, आंगनवाडी और ए.एन.एम. कर्मचारी जो प्रमुखतः संविदा कर्मचारी हैं और मानदेय पर काम करने को मजबूर हैं हमारे कुशल-क्षेम की रखवाली कर रही हैं. बाकी के सभी मज़दूर भी असुरक्षित कार्यस्थलों पर वापिस लौटने को मजबूर हैं ताकि उनके घर चूल्हा जल सके और उनके बच्चे स्कूल जा सकें. हर बार की तरह ही इस बार भी हमारी अर्थव्यवस्था के मसीहा मज़दूर ही हैं लेकिन उन पर पड़ी मार और जिस असुरक्षा का सामना वे कर रहे हैं वह अतुलनीय है.

मज़दूर वर्ग पर ऐसा गहरा वार पहले कभी नहीं हुआ. एक संगठित संयुक्त मोर्चे की ऐसी जरूरत भी पहले महसूस नहीं की गयी है. न्यू ट्रेड यूनियन इनिशिएटिव ने हमेशा मज़दूर वर्ग के संगठित और संयुक्त मोर्चे की पैरवी की है और करता रहेगा. भारतीय मज़दूर संघ को छोड़ बाकी सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के संयुक्त मोर्चे के आह्वान पर 22 मई 2020 को हम अपना पुरज़ोर योगदान देंगे क्योंकि हम जानते हैं कि मज़दूर संगठित हों तो पराजित नहीं हो सकते.

लॉकडाउन की अवधि के लिए सभी मज़दूरों को पूरी मज़दूरी दो
लॉकडाउन के समय काम से निलंबन बंद हो
भारत के राष्ट्रपति संज्ञान लें:
श्रम क़ानून संशोधन अध्यादेश खारिज करें
भारत सरकार:
12 घंटे का कार्यदिवस नहीं चलेगा – लड़ेंगे जीतेंगे
नौकरी दो, ऋण नहीं
मनरेगा के तहत सभी वयस्कों को 150 दिन काम दो
स्व-प्रमाणन है मौत का घर – हमारी सुरक्षा है आपकी जिम्मेदारी
लोगों को आवाजाही की खुली छूट दो

एकता में ही शक्ति है

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