अब तो सर्वोच्च न्यायालय ने भी मज़दूर वर्ग से पल्ला झाड़ लिया है

सर्वोच्च न्यायालय ने आज एक ऐसा फ़ैसला सुनाया है जिसके बकौल हमारे देश में मेहनतकश वर्ग कि ज़िन्दगी और उनकी रोज़ी-रोटी के लिए कोई जिम्मेदार ही नहीं हैं. 28 पन्नों वाला यह लम्बा-चौड़ा फ़ैसला जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहा है कि मालिक लॉकडाउन की अवधि के लिए मज़दूरी देने के लिए ज़िम्मेदार नहीं है वह न तो संवैधानिक अधिकारों पर आधारित हैं, न तथ्यों को तरज़ीह देता है और न ही विधिक प्रकृति पर ही खरा उतरता है.

भारत सरकार द्वारा 29 मार्च 2020 को जारी किये गए आदेश के विरोध में मालिकों द्वारा दायर कि गयी विभिन्न याचिकाओं पर आज अंतरिम आदेश जारी करते हुए सर्वोच्च न्यायलय ने उस आदेश को ही स्थगित कर दिया जिसके अंतर्गत भारत सरकार ने मालिकों को लॉकडाउन की अवधि के लिए मज़दूरों को पूरा वेतन देने के निर्देश जारी किये थे. साथ ही सर्वोच्च न्यायलय ने मज़दूरों को निर्देश दिया कि वे अपनी मज़दूरी के लिए मालिकों से गुहार लगायें और इसमें विफल होने पर मौजूदा न्यायिक प्रक्रिया का सहारा लें. खंडपीठ ने बड़ी सावधानी से मज़दूरों कि भयावह परिस्थिति से किनारा कर लिया, उन मज़दूरों के ज़िक्र करने से भी बच निकले जो बहुत ही कम या न्यूनतम वेतन पर काम करने को मजबूर हैं. एक याचिकाकर्ता के ‘काम नहीं तो मज़दूरी नहीं’ और ‘समान काम सामान वेतन’ आदि तर्कों की आड़ में न्यायलय उन सभी पेचीदा मुद्दों से बच निकली जिसमें उन मज़दूरों की जटिल परिस्थिति साफ़ दिखती है जो काम करना तो चाहते हैं लेकिन जिनके लिए लॉकडाउन के कारण काम उपलब्ध ही नहीं है, या फिर वे जो परिरोधन क्षेत्र (कन्टेनमेंट जोन) में फंसे हुए हैं, या फिर वे जो लॉकडाउन कि वजह से सार्वजनिक परिवहन सुविधाओं से वंचित हैं या शारीरिक दूरी बनाये रखने के दबाव के कारण अपनी नौकरी खो बैठे हैं. अदालत ने इस तर्क को भी पूरी तरह से दरकिनार कर दिया कि मालिकों कि सहायता के लिए तो सरकार ने 20 लाख करोड़ के रहत पैकेज कि घोषणा की है पर मज़दूरों की मज़दूरी देने या इसके लिए किसी आर्थिक सहायता पैकेज का कोई ज़िक्र नहीं है.

मामले की जटिलता को पूरी तरह से ताक़ पर रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकला है कि “इस में कोई संशय नहीं है कि भारत सरकार द्वारा आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के अंतर्गत जो लॉकडाउन घोषित किया गया उससे न सिर्फ मज़दूरों पर प्रतिकूल असर पड़ा बल्कि मालिकों पर भी बुरा असर पड़ा है.” इसी तर्क से यह साफ़ हो जाता है कि सच्चाई से मुह चुराते हुए अदालत ने एक चुनिन्दा पक्ष के हित में ही विचार करने का निश्चय कर लिया है और इसी वजह से वह संविधान में निहित जनता के मौलिक अधिकारों का बचाव करने में विफल रही है. इस तरह से सर्वोच्च न्यायाल ने यह साबित कर दिया है कि मालिकों का मुनाफा कमाने का अधिकार मज़दूरों के रोज़ी-रोटी कमाने के अधिकार के ऊपर है और समानुपातिक सिद्धांतों को धत्ता बताते हुए इशारा किया है कि न्यायलय के अनुसार अनुच्छेद 14 बेमानी है यहाँ भी मालिकों के अधिकारों के सामने मज़दूरों के अधिकार गौण हैं. मालिकों और मज़दूरों की मजबूरी की इस ‘काल्पनिक बराबरी’ के हवाले से अदालत ने मज़दूरों के जीवन के अधिकार कि धज्जियाँ उड़ा दी हैं जो संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित हैं. प्रवासी मज़दूरों के मामले पर 2 महीने तक चुप रहने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अब जब चुप्पी तोड़ी है तो यह साफ़ कर दिया है कि वह किस ओर है.

साथ ही केंद्र सरकार ने भी यह साफ़ कर दिया है कि वह किसी तरफदार है. उसने अपना जवाब दायर करने के लिए अतिरिक्त समय माँगा और तब तक कोई ठोस जिरह नहीं की जब तक 29 मार्च के आदेश को 18 मई के एक अध्यादेश से निरस्त नहीं कर दिया. केंद्र सरकार ने कई बार अपना जवाब दायर करने के लिए अगली तारीख़ की मांग की. आखिरकार जब सरकार ने अपना जवाब दायर किया तब भी वह तत्वहीन ही था. बड़ा दिल दिखाते हुए न्यायलय ने सरकार को जुलाई के अंत तक अपना जवाब दायर करने का समय दिया है जब वह दोबारा इस मामले में सुनवाई करेगी. तब तक के लिए न्यायलय ने मालिकों के खिलाफ कोई भी कार्यवाही न करने का आदेश दिया है. अतः जब तक यह बंदी ख़त्म होगी मालिक तो चैन की बंसी बजायेंगे पर मज़दूर बिना मज़दूरी और सर पर लटकती बेरोज़गारी की तलवार के साथ गुज़ारा करने पर मजबूर रहेंगे.

जबकि न्यायपालिका और भाजपा सरकार दोनों ही ने मेहनतकाश वर्ग के हितों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है, मज़दूर वर्ग के लिए यह आवश्यक हो गया है कि अपनी एकता, आत्म-निर्भरता और चातुर्य से हमारे संविधान में निहित लोकतांत्रिक और समतामूलक मूल्यों का बचाव करे. अपने ही नहीं बल्कि पूरे समाज के अधिकारों की रक्षा का दारोमदार अब मेहनतकश वर्ग के कन्धों पर है.

गौतम मोदी
महासचिव

Click here to read in English