3 जुलाई को ट्रेड यूनियनों के संयुक्त मोर्चे में शामिल हों

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कहाँ हैं हमारी नौकरियाँ? कहाँ है हमारी सैलरी?

29 मार्च 2020 को गृह मंत्रालय ने एक आदेश जारी करते हुए निर्देश दिए कि “लॉकडाउन के दौरान काम बंद होने के कारण सभी मालिक मज़दूरों को नियत दिन और समय पर बिना किसी कटौती के उनकी पूरी मजदूरी दें”. नौकरी पेशा मज़दूरों के लिए यह खबर एक बड़ी राहत बन कर आई. लेकिन सरकार की मंशा इस बाबत शुरुआत से ही साफ थी – सरकार ने इस आदेश का पालन करवाने के लिए किसी प्रणाली की जिम्मेदारी तय नहीं की. आदेश का पालन नहीं करने वाले मालिकों पर क्या क़ानूनी कार्यवाही होगी या क्या सज़ा दी जाएगी इसका भी कोई ज़िक्र नहीं किया. जब मालिक इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंचे तो सरकार ने आपने आदेश का बचाव करने की कोई ज़हमत नहीं उठाई. अपने आदेश के बचाव में पक्ष रखने के बदले सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में मालिकों और मज़दूरों के बीच सामूहिक समझौते करने की पैरवी की. अदालत ने भी जी हुजूरी करते हुए अपने फैसले में यही बात ज्यों की त्यों रख दी और सरकार के आदेश की बची-खुची साख भी ख़त्म हो गयी. लेकिन अदालत ने मालिकों का पक्ष लेते हुए अपने फैसले में यह भी कहा कि जिन मालिकों ने अभी तक आदेश का पालन नहीं किया है उन पर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं कि जाये. एक ऐसी सरकार जो अपना बचाव तक नहीं कर सकती क्या उस सरकार पर भरोसा किया जा सकता है?

पूंजीवाद हो गया है फेल – मजदूरों को चाहिए सुरक्षित नौकरियाँ और उचित सैलरी

आज, जब लॉक डाउन को शुरू हुए 3 महीने बीत चुके हैं, हर 4 में से 1 मज़दूर अपनी नौकरी गवां चूका है. 12.2 करोड़ से भी ज्यादा मज़दूर बेरोजगार हैं. यानी लॉकडाउन शुरू होने से अब तक बेरोज़गार लोगों की गिनती में चौगुना बढ़ोतरी हुई है  यदि मान लें की हर परिवार में केवल 4 सदस्य थे तो इसका मतलब हुआ लगभग 44 करोड़ लोग प्रभावित हुए यानी 139 करोड़ की आबादी में हर 3 में से 1 व्यक्ति नौकरी जाने और उसके परिणामस्वरूप हुए पैसों के नुक्सान से सीधे-सीधे प्रभावित हुआ जबकि इस गिनती वे मज़दूर शामिल भी नहीं हैं जिनके पास कोई पूर्ण रोज़गार नहीं था. इनमें से ज्यादातर वैसे मज़दूर हैं जिनकी दिहाड़ी बहुत कम है और नौकरियाँ असुरक्षित. अपना रोज़गार करने वाले लाखों लोग जैसे कि रेहड़ी-ठेले वाले लोगों के रोज़गार के सारे माध्यम बंद हो गए क्योंकि पूरे राष्ट्र में तालाबंदी हो गयी.

किसी के पास इस बात का आंकड़ा नहीं है कि जिन लोगों की नौकरी नहीं गयी उसमें से कितने लोगों लॉकडाउन के समय सैलरी मिली. घरेलु कामगारों में ऐसे बहुत कम लोग हैं जिन्हें लॉकडाउन के दौरान सैलरी मिली  इस बात का भी कोई आंकड़ा नहीं है कि कितने लोगों को आधी सैलरी या उससे भी कम सैलरी मिली. निर्माण क्षेत्र हो या सेवा क्षेत्र ठेका मज़दूरों को उनके पैसे नहीं मिले. यहाँ तक कि सरकार ने भी आशा, आंगनवाड़ी, और मध्याहन भोजन कर्मचारियों को वेतन नहीं दिया लॉकडाउन के शुरुआत में ही अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने अंदेशा जताया था कि भारत में 40 करोड़ लोगों के गरीबी की चपेट में आ जाने का खतरा है. इस रिपोर्ट के आने से अब तक हालात बदतर ही हुए हैं. इस परेशानी से निपटने के लिए सरकार ने मनरेगा पर इस साल के खर्चे में 400 करोड़ की बढ़ोतरी की है, दिहाड़ी 202 रुपये से बढ़ा कर 182 रुपये कर दी है.- फिर भी यह रकम देश के सबसे कम न्यूनतम वेतन का आधा ही है. इसका मतलब यह हुआ कि मनरेगा परिवारों को गरीब ही बनाये रखेगी वे गरीबी के चक्र से उबर नहीं पाएंगे.

इस बात के तो साक्ष्य हैं ही कि लॉकडाउन के दुसरे हफ्ते के बाद से मजदूरों के पास रोज़-मर्रा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी पैसे नहीं थे. अगर इसमें उन लोगों को भी जोड़ दें जो छोटा-मोटा कारोबार करते थे जैसे कि रेहड़ी-ठेले पर सामान बेचना आदि जिनकी कमाई लॉकडाउन शुरू होते ही प्रभावित हो गयी थी तो समझिये कि हमारे मुल्क की आधी आबादी को अपने परिवार की जरूरतें यहाँ तक ही खाने का इंतज़ाम करने में भी बहुत मुश्किल हुई.

मज़दूरों की जो भी थोड़ी बहुत नगण्य सी बचत थी वो उन्हें खर्चनी पड़ी. उन्हें सूद पर क़र्ज़ लेना पड़ा और अपनी इज्ज़त ताक़ पर रखते हुए भुखमरी से बचने के लिए दूसरों के सामने हाथ फ़ैलाने पर मजबूर होना पड़ा. मज़दूर और उनके परिवारों को कई दफ़े भूखे पेट सोना पड़ा, उन्हें दवाइयां नहीं मिलीं और उन्हें अपने बच्चों को स्कूलों से निकालना पड़ा. हर 10 में से 4 मज़दूर का मकान का किराया भरना, यहाँ तक कि खाना ख़रीदना भी भरना दूभर हो गया शहर में रहना मुश्किल हो गया इसीलिए लॉकडाउन के पहले महीने में कई मज़दूरों ने पैदल चल कर ही गाँव लौट जाने का फैसला किया. इस बर्बर यात्रा में जितने लोगों ने जान गँवाई उनकी गिनती कोरोना वायरस से मरने वालों की संख्या से कहीं ज्यादा है.

मालिकों पर नियंत्रण के लिए नहीं मजदूरों पर हुक्म बजाने के लिए लेबर कोड ला रही है सरकार

12 मई के अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि भारत ने एक त्रासदी को अवसर में बदल दिया है. यह इशारा मिलते ही भाजपा शासित राज्यों में सरकारों ने महामारी की आड़ लेते हुए मजदूरों के हितों पर झपट्टा मारा और वे कानून को सैद्धांतिक रूप से ही सही मजदूरों के 8 घंटे के कार्यदिवस, नौकरी की सुरक्षा, समान दिहाड़ी, नौकरी के करार और मातृत्व लाभ, कार्यस्थल पर सुरक्षा आदि सुनिश्चित करते हैं उनका खात्मा करने पर आमादा हो गए. उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सभी श्रम कानूनों को निरस्त करने का जो निर्णय लिया गया है जिसमें मजदूरी संहिता 2019 भी शामिल है उस पर केंद्र सरकार ने पूरी तरह से चुप्पी साध ली है. गुजरात और मध्य प्रदेश द्वारा श्रम कानूनों में बदलाव और काम के घंटे 8 से बढ़ा कर 12 करने के फैसले पर भी मोदी सरकार पूरी तरह से चुप रही है हालाँकि काम के घंटे बढाने के फैसले को बाद में वापिस लेना पड़ा क्योंकि इन्हें जारी करने में सही कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया था.

ख़ास कर प्रस्तावित औद्योगिक सम्बन्ध संहिता जो औद्योगिक विवाद अधिनियम और ट्रेड यूनियन अधिनियम की जगह लेगा मजदूर हितों पर एक बड़ा हमला है. इस अधिनियम में एक प्रावधान यह भी है कि औद्योगिक मोर्चा आदि करने पर ट्रेड यूनियनों का पंजीकरण निरस्त किया जा सकता है जिसका मतलब है संविधान में निहित मजदूरों के संगठन बनाने की आज़ादी का हनन.  साथ ही लेबर कोड मालिकों को छूट देते हैं कि वे मनमानी के अनुसार मज़दूरों को काम पर रख या निकाल सकते हैं. इससे मजदूरों की ज़िन्दगी में असुरक्षा तो बढती ही है साथ ही साथ इससे ट्रेड यूनियनों को भी आराम से तोड़ा जा सकेगा.

यही वे बदलाव हैं जिनकी मांग मालिक बरसों से करते रहे हैं. वे मालिक जिनकी सैलरी देने में जान जा रही थी, उन्होंने पी एम केयर्स फण्ड (PM Cares Fund) में दिल खोल कर पैसा दिया है. इस फण्ड के बारे में सरकार का कहना है कि यह एक सरकारी कोष नहीं है इसीलिए यह सूचना के अधिकार के दायरे में नहीं आता. पी एम केयर्स फण्ड में थोड़े से पैसे दान दे कर मालिक न सिर्फ मजदूरों को सैलरी दने वाले आदेश से बच निकले साथ ही श्रम कानूनों से भी छुटकारा मिल गया.

इसका मतलब यह है की महामारी के आगाज़ से पहले ही अर्थव्यवस्था की जो दुर्दशा हो गयी थी उसका पूरा भार सरकार और मालिकों द्वारा मेहनतकश वर्ग पर डाल दिया गया है. भाजपा सरकार चाहती है कि हर मजदूर फिर चाहे उसकी मजदूरी कितनी ही कम क्यों न हो, चाहे वह न्यूनतम मजदूरी पर किसी तरह जीवन जी रहा हो उनकी सैलरी में कटौती हो. मजदूर मालिकों और पूँजीपतियों के मुनाफा बनाने के अधिकार और इस देश की गर्त में जाती अर्थव्यवस्था के लिए कुर्बानी दें.

हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र पर दक्षिणपंथी हमले की शुरुआत मजदूर वर्ग पर हमले से होती है. और लगातार लोकतंत्र और जनतांत्रिक अधिकारों पर हमला करती आ रही भाजपा सरकार को अब लगने लगा है कि वह अर्थव्यवस्था का उदारीकरण करने के लिए आज़ाद है, सरकारी उद्यमों का निजीकरण कर सकती है और ऐसे नए नियम तय कर सकती है जिससे निजी पूँजी को फायदा पहुंचे और धनी वर्ग के मुनाफे का जो भी नुक्सान हुआ है उसकी भरपाई हो सके.

जब 1920 में असहयोग आन्दोलन की शुरुआत हुई थी तब स्वदेशी खरीदना ‘गैर-कानूनी’ था. यह रौलेट एक्ट के भी विरुद्ध था जिसके तहत ब्रिटिश सरकार को भारतीयों को असीमित समय तक गिरफ्तार करने या बंदी बनाये रखने की आज़ादी थी . भाजपा सरकार ने यूएपीए (UAPA) कानून में बदलाव कर रौलेट एक्ट के सामान प्रावधान लागू कर लोगों प्राकृतिक न्याय से ही वंचित कर दिया है. यह गुलामी जैसा ही दौर है. यह दौर अन्याय के खिलाफ विरोध करने का है. समय की मांग है की हम लड़ें और लड़ कर अपने अधिकार फिर से हासिल करें और पूरी मानव जाती के लिए एक बेहतर भविष्य सुनिश्चित करें.

भाजपा सरकार :

  • 18 मई 2020 का वेतन सम्बन्धी आदेश वापिस लो
  • सैलरी और नौकरी संबंधी 29 मार्च 2020 के आदेश की अवमानना करने वाले सभी मालिकों पर कार्यवाही करो
  • मनरेगा के तहत हर वयस्क को 100 दिन का रोज़गार दो
  • शहरी रोज़गार गारंटी योजना अविलंब लागू करो
  • 12 घंटे का कार्यदिवस नहीं चलेगा
  • मानक मजदूरी नहीं चलेगी – 600 रुपये प्रतिदिन से कम न्यूनतम वेतन नहीं चलेगा

 

जिम्मेदारी लो – जनता को जवाब दो