टैक्स के बोझ तले मज़दूरों की कमाई, पूंजिपतियों के नाम सारी मलाई : केंद्रीय बजट 2021

तीन दिन पहले सरकार ने आर्थिक सर्वेक्षण 2020-21 (..) जारी करते हुए कहा कि भारत ने स्वयं का विशिष्ट प्रक्षेपवक्र बना लिया है। निश्चित ही भारत का अमानवीय लाकडाऊन जिसके कारण लोगों की नौकरियां छीन गयीं और न जाने कितने लोग गरीबी की चपेट में आ गए अपने आप में अनूठा ही था। केंद्रीय बजट 2020-21 ने यह पक्का कर दिया है कि सरकार राष्ट्र में नीतिगत रुप से आर्थिक असमानता बढ़ाने और निजी पूंजी का पुरजोर फा़यदा कराने के लिए प्रतिबद्ध है। यही भाजपा सरकार का विकास माडल है गरीबी में बढ़ोतरी और गरीब जनता का खून चूस कर बड़ी होती निजी पूंजी। सरकार के दोनों अहम वार्षिक ब्यौरे अर्थव्यवस्था का हाल (state of the economy) और आगामी वार्षिक वित्तीय नीति (budget statement) नौकरी के सवाल पर पूरी तरह से कन्नी काट कर निकल जाते हैं जबकि हमारा देश महामारी के पहले से ही बेरोज़गारी से बुरी तरह जूझ रहा था।

किसके मत्थे पड़ा महामारी का खर्च?

पिछली बार की तरह ही इस बार भी वित्त मंत्री ने बजट ब्यौरे में यह बताने की कोई जरूरत नहीं समझी कि आखिर राजकोषीय घाटा पिछले साल के मुकाबले लगभग दोगुना क्यों और कैसे हो गया. सरकार ने यह बताने की भी जहमत नहीं उठाई कि राजस्व (टैक्स) की गिरावट का क्या कारण रहा। महामारी का खर्च किसके मत्थे पड़ा यह पता लगाने के लिए ये अहम सवाल हैं।

राजस्व वसूली में गिरावट इस प्रकार थी कॉर्पोरेट टैक्स से 35%, आयकर से 29 %, और अप्रत्यक्ष कर जैसे कि वस्तु एवं सेवा कर, पेट्रोल और डीज़ल से मात्र 15%. इससे यह पता चलता है कि कंपनियों और अमीर लोगों का महामारी के कारण आर्थिक नुक़सान हुआ और उनहोंने अनुमान से कम आयकर भरा। लेकिन, जिसे महामारी की मार सबसे ज्यादा पड़ी, जिसकी नौकरी चली गई उस गरीब जनता ने अनुपातिक रुप से अमीरों से ज्यादा आयकर भरा। जनता ने ना सिर्फ जरुरत की हर सामग्री पर वस्तु एवं सेवा कर (GST) भरा बल्कि पेट्रोल व डीज़ल पर टैक्स अधिक होने के कारण अवश्यक चीज़ो‌ं की मंहगाई बढ़ी यानि महामारी का खर्च गरीबों मत्थे पड़ा। यह तो सभी को मालूम है कि महामारी का सबसे अधिक प्रभाव गरीबों पर पड़ा लेकिन इस बजट में सरकार ने साफ कर दिया कि सरकार ने भी महामारी के दौरान गरीबों से ही सबसे ज्यादा उगाही की।

अमीरों और पूंजीपतियों का जीवन और भी आसान करने के लिये सरकार ने यह भी घोषणा की है कि टैक्स चोरी के मामले में जाँच हो सकने की अवधि को 6 साल से घटा कर 3 साल कर दिया जायेगा और गंभीर कर धोखाधड़ी के मामलों में जाँच 50 लाख या अधिक के वार्षिक आय वाले मामलों में ही हो सकेगी। इसका मतलब है बड़ी संख्या में टैक्स चोरी के मामलों का खात्मा जिन में अब कोई कार्रवाही नहीं होगी।

महामारी के दौरान सरकार ने भोजन और रोज़गार पर खर्च बढ़ाया था पर बजट में यह साफ कर दिया गया है कि इन इकाईयों पर खर्च में पुनः कटौती की जायेगी। आगामी वर्ष में सरकार सामाजिक सुरक्षा, रोज़गार गारंटी, आंगनवाड़ी व मध्याहन भोजन पर खर्च में कटौती कर उसे 2019-20 के खर्च के स्तर पर ले आयेगी।

क्या है हमारी अर्थव्यवस्था का हाल?

सरकार ने प्लान ऐसे बनाया है जैसे हम आज भी उसी स्थिति में हों जैसे कि एक साल पहले थे। यह एक झूठा दावा है क्योंकि बजट में 2020-21 के लिये आर्थिक विकास का जो दावा है वह प्रश्न खड़े करता है। कई स्वतंत्र अर्थशास्त्रियों का कहना है कि आर्थिक गिरावट का जो दावा सरकार पेश कर रही है असल में गिरावट उससे कहीं अधिक ह‌ुई है, साथ ही सुधार का जो सरकारी दावा है असल में सुधार उससे कहीं धीमी गति से होने वाला है। समाजिक सुरक्षा पर कटौती के कारण ना सिर्फ वंचितों को और कष्ट होगा बल्कि बाज़ार में मांग में होने वाले सुधार की गति भी धीमी रहेगी जिसके कारण रोज़गार के नए अवसर नहीं बन पायेंगे और आर्थिक स‌ुधार की गति धीमी ही रहेगी। ज्ञात रहे कि महामारी से पहले के तीन सालों में भी बाज़ार में मांग में भारी कमी थी और बेरोज़गारी दर 50सालों के अपने चरम पर थी। महामारी ने उस आर्थिक गिरावट को बस तेज़ी दी है जिसकी कारक भाजपा सरकार की नीतियां रही हैं।

सरकार के पास सभी मु्श्किलों का एक ही जादुई ईलाज है सरकारी संपत्ति का निजिकरण और सरकारी धरोहरों की बिक्री कर पैसे उगाहना जैसे कि सड़क, बिजली या कुछ भी और। बजट में सरकार ने कहा है कि आने वाले साल दो सरकारी बैंकों का निजिकारण होगा। सरकार ने बिना बैंकों का नाम बताये यह निर्णय ले लिया है कि इनका निजिकरण होगा। इससे यह साफ है कि निजिकरण बिना किसी सोची समझी नीति के बस पूंजिपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए किया जाएगा।

बजट में स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ाने की बात की गई है जिसमें 35,000 करोड़ रुपये की लागत वाला टीकाकरण अभियान शामिल है। हमारे जैसे बड़े देश के लिए बस इतना सा खर्च कुछ हज़म नहीं होता और जहाँ तक टीकाकरण अभियान की बात है यह अभी तक साफ़ नहीं है कि टीके किन लोगों को लगाए जायेंगे और इससे कुल कितने लोग प्रभावित होंगे।

महामारी ने दुनिया भर की सरकारों को यह सीख दी है कि आपातकालिक एवं मूलभूत सेवा प्रदातओं की जरुरतों का समाधान करना आवश्यक है। हमारे लिये हमारे आशा और ए.एन.एम कर्मचारी, आंगनवाड़ी कर्मचारी और निगम कर्मचारी, यातायात कर्मचारी, शिक्षक आदि हैं। सवालों के घेरे में खड़ी नई शिक्षा नीति पर खर्चने को सरकार के पास पैसे हैं पर मौजूदा स्कूलों की स्थिति सुधारने और उन्हें दोबारा शुरू करने के लिए और हमारे बच्चों को दोबारा स्कूल भेजने के लिये सरकार के पास पैसे नहीं हैं। नए मेट्रो शुरु करने की भव्य योजनायें हैं पर महामारी के कारण बंद हुई सरकारी यातायात सुविधाओं और रेल व्यवस्था, जिन पर कामकाजी लोगों की निर्भरता है को दोबारा सुचारु रुप से शुरु करने का कोई म‌ंसूबा नज़र नहीं आता।

बजट में सरकार ने यह साफ़ कर ही दिया है कि अगर आपको कठिनाई हो रही है तो उसके साथ जीने की आदत डालिये। शिकायत मत किजिेए, ना ही सरकार से कोई उम्मीद रखिए। भाजपा सरकार की आत्मनिर्भरता की यही परिभाषा है यह आत्मनिर्भरता राष्ट्र की नहीं बल्कि व्यक्तिगत आत्मनिर्भरता पर केंद्रित है। इसिलिए सरकार ने बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश और स्वामित्व का रास्ता पूरी तरह से खोल दिया है।

चुनावी एजेंडा

सरकार ने असम और पश्चिम बंगाल के चाय बगानों में काम करने वाले मज़दूरों के लिए 100 करोड़ रुपये के विशेष पैकेज की घोषणा की है। यह निर्णय निश्चित ही स्वागत योग्य है, चाय बगानों में काम करने वाले मज़दूर एक लंबे अरसे से गरीबी की ज़द में जी रहे हैं। लेकिन यह भी सोचने वाली बात है कि इस रक़म से 500,000 मज़दूर परिवारों का कितना ही भला होगा। यदि यह राशि इन दोनों राज्यों में काम करने वाले मज़दूरों में बराबरबराबर भी बांटी जाती है तो हर परिवार को बस 2000 रुपये सालाना ही मिलेंगे। असाम और पश्चिम बंगाल दोनों ही राज्य आने वाले महीनों में चुनाव हैं। भाजपा यह खूब समझती है कि लोगों की लोगों को गरीब रखने में ही फ़ायदा है। चुनाव के समय गरीबों के वोट पैसों का लालच दिखा कर खरीदे भी जाते हैं। चुनाव से पहले 2000 रुपये का यह लालीपाप बिलकुल फिट बैठता है।

महामारी से किसका फायदा हुआ?

बजट भाषण के तुरंत बाद बम्बई सट्टा बाज़ार में 5% तेज़ी आई। उस काले दिन से जब लाकडाऊन की घोषणा हुई थी तब से अब तक सूचकांक में 87% बढ़ोतरी हुई है। बड़ी कंपनीयों की कमाई और मुनाफा तेज़ी से बढ़ा है और फिर भी इन कंपनियों का अपने कर्मचारियों पर खर्च सिर्फ़ घटा ही है। इससे यही पता चलता है कि जैसा नोटबंदी और GST के बाद हुआ था ठीक वैसा ही महामारी के बाद भी हो रहा है। यानि कि बड़े व्यापारियों को फ़ायदा हो रहा है और वे छोटे व मझोले व्यापारियों के साथसाथ असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के धंधे पर कब्जा कर रहे हैं। छोटे व्यापारियों का सफाया हो गया है और बड़ेबड़े पूंजिपतियों की ऐश हो गई है।

चारों लेबर कोड और तीन नये कृषि कानूनों के अमल से समाजिक असमानता की खाई और गहरा जायेगी। सभी कामकाजी लोग – मज़दूर और किसान हाशिये से भी परे धकेल दिये जायेंगे। चाहे फिक्स्ड टर्म कांट्रेक्ट पर काम करने वाला मज़दूर हो या बड़ी कंपनी के साथ कांट्रेक्ट पर खेती करने वाला छोटे या मझोला किसान सबकी एक जैसी ही दुर्गति होने वाली है। बस बड़े पूंजिपतियों को ही फायदा होने वाला है। बजट में सरकार ने कई बार दावा किया कि किसानों की आय 2022 तक दोगुनी हो जायेगी, जबकि असल में किसानों पर होने वाले खर्च में कटौती कर दी गई है। खैर सरकार का यह ऐलान अगर सही भी हुआ तो किसानों के एक बड़े तबके तक यों यह खबर नहीं पहुंचेगी, क्योंकि वे राजधानी की सिमाओं पर आंदोलनरत हैं जहाँ सरकार ने इंटरनेट सेवाएं बंद कर रखी हैं। भाजपा सरकार को नहीं लगता कि इसमें कुछ भी गलत है। वह तो बस इतना ही चाहती है कि दूसरे लोग जानें कि सरकार हम सबके लिये क्याक्या भला कर रही है। यदि आप तर्क करें तो आप नासमझ हैं अपनी भलाई आप नहीं समझते और अगर आप विरोध करें तो देशद्रोही हैं।

हो सकता है इस बजट को भाजपा सरकार के मंसूबे पूरे करने वाला एक जन विरोधी बजट कहना भी राष्ट्रद्रोह ही माना जाए।

गौतम मोदी

महासचिव